विद्वान और गुरु की तलाश

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एक व्यक्ति बहुत विद्वान था, उसने अपने जीवन में अनेक धार्मिक ग्रंथ पढ़े। वे हर गहरे और गंभीर विषय पर विस्तार से बोल सकते थे। लेकिन सभी ज्ञान के बावजूद, वह संतुष्ट और शांत नहीं थे। उन्होंने गुरु की खोज शुरू की। वे अनेक साधुओं से मिले, पर उन्हें लगा कि उनमें मेरे जितना ज्ञान नहीं है, वे मेरे गुरु कैसे हो सकते हैं।
तब उसे एक साधु के बारे में बताया गया। उसके पास गया वह गया और कहने लगा, मुझे कोई शिक्षा दो जिससे मैं भीतर से शांत हो जाऊं। साधु कहने लगा, पहले तूने वह सब लिखा जो तू जानता है।कई महीने लगाकर उसने हजारों पन्ने लिखे। यह देखकर साधु ने कहा, इतने कोणों से पढ़ूंगा, सारांश कर दिया।इन हजारों पृष्ठों में से एक हजार पृष्ठ बनाकर साधु के पास ले गया। साधु ने कहा कि इसे और संक्षिप्त कर दो। उसने एक सौ पृष्ठ किए। साधु कहने लगा, कम करो। दस पेज बाकी हैं। और भी, और संक्षेप में बताने को कहा। उस विद्वान ने एक पन्ना पलट दिया। साधु ने कहा कि यह बात भी नहीं समझी, अभी भी बहुत लगती है। अंत में वह विद्वान एक कोरा पन्ना लेकर आया और जाकर संत के चरणों में रख दिया।
साधु मुस्कुराए और कहने लगे, अब हम आपसे अध्यात्म की बात कर सकते हैं। अब तुम मेरे शिश, मेरे शिष्य बन सकते हो।
पहले तुम्हारे और मेरे बीच ज्ञान की दीवार थी।
इसलिए आज मैं आपको पहला पाठ देता हूं कि शिष्य या सिख (शीष) वह है जो गुरु के पास इस भाव से जाता है कि वह कुछ नहीं जानता।

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